सशक्त साम्राज्य और राजपूताने का एकीकरण


सशक्त साम्राज्य और राजपूताने का एकीकरण

1520 तक, तलवारों की ठनक और घोड़ों की टापों ने राणा सांगा को एक विशाल साम्राज्य का स्वामी बना दिया था। जो अब सिर्फ राजपूताने (वर्तमान समय में राजस्थान) तक सिमित नहीं था लेकिन अब वह अरावली की पहाड़ियों से मालवा के मैदानों और गुजरात की सीमाओं तक फैला हुआ था। खतौली, धौलपुर, गागरोन और इडर की विजयों ने सुल्तानों को घुटने टेकने पर मजबूर किया और मेवाड़ के प्रभुत्व को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। लेकिन सांगा की महात्वाकांक्षा महज विजय तक सीमित नहीं थी। उन्होंने एक सम्पूर्ण एकजुट राजपूताने का सपना देखा था। वह एक ऐसी धरती की इच्छा रखते थे जहाँ कबीले, जो लंबे समय से गर्व, प्रतिद्वंद्विता और छोटे-मोटे विवादों में बँटे हुए थे वे अपने संघर्ष भुला कर विदेशी आक्रमणकारियों के उफान के खिलाफ एकसाथ खड़े हों। ये आक्रमणकारी सदियों से भारत की सीमाओं को कुतरते रहे थे। उनके सामने सशक्त होकर आपसी मतभेदों को भुलाते हुए एकत्रित कर पाना कोई आसान कार्य नहीं था। राजपूत एक योद्धा जाति थे (सिसोदिया, राठौड़, कछवाहा, चौहान और अन्य) हर एक स्वतंत्र, उनकी निष्ठा उनके सम्मान की तरह दृढ़ और कठिनाई से अर्जित की हुई सामर्थ्यवान पितृक परंपरा और सस्कृति पर स्थित थी। उन्हें एक ध्वज के नीचे लाने के लिए तलवार से अधिक एक कुशल नेतृत्व कर्ता की जरूरत थी; एक ऐसे राजा की आवश्यकता थी, जिसमें दूरदर्शी राजनेता की बुद्धि, संत का संयम और देवता जैसा आकर्षण और सामर्थ्य हो। महाराणा सांगा वह राजा थे। उनका शासन एक मंच बन गया, जहाँ राजपूताने की बिखरी आत्मा को फिर से गढ़ा गया। यह कहानी है कि कैसे उन्होंने अपने लोगों को एकजुट किया, कैसे उन्होंने गठबंधन बुने, और उन छायाओं की, जो उनके इस महान संकल्प को धूमिल करने की प्रतीक्षा में थीं।

एकता के बीज

सांगा 1509 में मेवाड़ की गद्दी पर तब बैठे, जब चारों ओर आंतरिक कलह का तूफान मँडरा रहा था। उनके भाइयों, पृथ्वीराज और जगमाल की मृत्यु ने उनके लिए शासन का मार्ग प्रशस्त किया था, पर सिसोदिया दरबार उनके बाद भी साँपों का अड्डा बना रहा। कुलीन लोग द्वेष पाले बैठे थे, सरदार सत्ता की ओर ताक रहे थे और रिश्तेदार फुसफुसाहटों में षड्यंत्र रच रहे थे। चित्तौड़ की दीवारों से परे, राजपूताना राज्यों का एक खंडित चित्र था: जिनमे राठौड़ों का मारवाड़, कछवाहों का आमेर, बीकानेर, जैसलमेर और अनगिनत छोटे राज्य सामिल था। हर एक शासन अपने प्रदेश के लिए स्वाभिमान का गढ़ और अस्तित्व के लिए सशक्त खड़ा था। सैकड़ों वर्षों से ये कबीले आपस में भिड़ते रहे जिसमे जमीन, पानी या मामूली अपमान के लिए लड़ाई के मामले सामिल थे। यही वजह रही जिससे वे दिल्ली, गुजरात और मालवा की सल्तनतों के सामने कमजोर पड़ते चले गए। इन मुघल सल्तनतों ने उनके विभाजन का क्रूरता से लाभ उठाया। पृथ्वीराज चौहान द्वारा बार बार हार का मुह देखने के बाद भी छल के कारण उसने एक विजय को हासिल किया। यह बना 1192 में मुहम्मद ग़ौरी के हाथों पृथ्वीराज चौहान के पतन का एक कटु सबक। राजपूतों के रक्त में बसी एक स्मृति, जो बिखराव को हार का पर्याय बनाती थी।

राणा सांगा ने इस इतिहास को इतनी गहराई से समझा कि वे राजपूताने के साम्राज्यों में सबसे अलग नजर आए। उनके दादा राणा कुंभा ने भी मालवा और गुजरात के खिलाफ कबीलों को क्षणिक एकता में बाँधा था, लेकिन वह अधिक जुडा अनहि रहा और 1468 में उनकी हत्या के साथ ही वह गठजोड़ टूट गया। लेकिन राणा सांगा ने दादा की उसी रणनीति को अपनाया और उसमे सफल होने की ठानी, जहाँ अन्य असफल रहे थे। यह उन्हें हर हाल में करना था, न केवल मेवाड़ की रक्षा के लिए, बल्कि एक ऐसे राजपूत संघ को पुनर्जनम देने के लिए, जो उत्तरी भारत को आक्रमणकारियों से छीनने में सक्षम हो। उनकी सैन्य विजयों ने इस एकत्रीकरण के लिए आधार तैयार किया, पर एकता के लिए जीत से बढ़कर चाहिए था—भरोसा। जो अंतर युद्ध के कारण राजस्थान के रेगिस्तानों में सोने से भी दुर्लभ बन चूका था। यही वजह रही की शुरू से ही, उन्होंने मेवाड़ के भीतर की दरारों को भरना शुरू कर दिया था, क्योंकि वे अच्छे से इस बात को जानते थे कि टूटा हुआ घर दूसरों को कभी भी जोड़ नहीं सकता।

उनका पहला कदम सिसोदिया सरदारों के बीच की खाई को कम करना बन गया था। रावत कंधल और बनबीर जैसे प्रभावशाली सरदार, जिनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं, उन्हें ताकत से नहीं किंतु सह सम्मान अपने पक्ष में लाया गया। राणा सांगा उनके साथ दरबार में बैठे, उनकी एकमात्र आँख उनकी नजरों से मिलती रही, उनकी आवाज दृढ़ थी—वे मेवाड़ को किसी एक कबीले से बड़ा बताते थे। उन्होंने मेवाड़ के प्रति निष्ठा की शपथ लेने वालों को शासन में उपाधियाँ और जमीनें भी प्रदान की, जिससे समय के साथ उनके प्रतिद्वंद्वी भी उनके सहयोगी बन गए। बूंदी के हारा कबीले की राजकुमारी रानी कर्णावती से उनका विवाह कूटनीति का चरम था। इसने हाराओं को मेवाड़ से जोड़ा और उनके पराक्रमी योद्धाओं को सांगा के ध्वज के लिए बाँध लिया। बुद्धिमान और संकल्पशील कर्णावती इस संकल्प में उनकी संगी बनीं, उनकी सलाह किसी तलवार सी पैनी साबित होती रही।

गठबंधनों का जाल

मेवाड़ की आंतरिक एकता सुनिश्चित करने के बाद, राणा सांगा ने अपना जाल और विस्तृत किया। मारवाड़ के राठौड़ जो की राव गंगा के अधीन थे, वे उनका पहला लक्ष्य बने। वैसे तो मारवाड़ मेवाड़ का प्रतिद्वंद्वी था, लेकिन वह रेगिस्तान साहसी योद्धाओं और चतुर नेताओं का घर भी था। व्यावहारिक स्वभाव के राव गंगा ने सांगा के उदय को सतर्कता पूर्ण निगाहों से देखा था। उनका गठजोड़ खून से तो नहीं बन पाया लेकिन आपसी जरूरत से यह पक्का हुआ। महाराजा गंगा को गुजरात के अतिक्रमण से सुरक्षा चाहिए थी, और सांगा को अपने अभियानों के लिए मारवाड़ की घुड़सवार सेना। 1517 में खतौली में, गंगा के घुड़सवार सांगा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़े, उनके भाले लोदी के रक्त से सने थे। जीत ने उनके बंधन को गहरा किया, और महाराज गंगा उनके एक अटल सहयोगी बन गए। और फिर क्या था? हर बड़े युद्ध में उनके झंडे अब मेवाड़ के साथ ही लहराए।

पूर्व में, आमेर के कछवाहों ने भी राणा सांगा के लिए एक और अवसर प्रस्तुत किया। राव पृथ्वीराज सिंह प्रथम, एक युवा और महात्वाकांक्षी शासक थे जो अब उनकी बहन के विवाह से बने रिश्ते से राणा सांगा के बहनोई थे । कछवाहा दिल्ली की सीमाओं के पास अपनी पकड़ बनाए हुए थे, उनकी निष्ठा ही लोदी सल्तनत को चुनौती देने के लिए राणा सांगा की कुंजी थी। राणा सांगा ने पृथ्वीराज का स्वागत किया, उन्हें 1518-19 में धौलपुर की आय में हिस्सा देने का वादा भी किया। युवा राव ने अपनी योग्यता सिद्ध की और उनके योद्धाओं ने अपने रिश्तेदारों की तरह ही वीरता से युद्ध लड़ा। पारिवारिक बंधन और युद्ध के मैदान के भाईचारे से जुड़ा यह गठजोड़ मेवाड़ के प्रभाव को गंगा के मैदानों तक ले गया। यही से प्रारंभ हुआ रना सांगा का दिल्ली तक पहुँचने की ओर एक कदम।

फिर छोटे राज्य आए। मेवाड़ के दक्षिण में एक पहाड़ी क्षेत्र के शासक वागड़ के रावल उदय सिंह ने 1519 में गागरोन की जीत के बाद सांगा के प्रति निष्ठा जताई, जो महमूद खिलजी के प्रति उनकी उदारता से प्रभावित होकर उपजी थी। उसके बाद मेड़ता के राव वीरम देव जो राठौड़ के चचेरे भाई थे, वे 1520 में इडर के बाद सांगा की सेना में शामिल हुए। राव विरमदेव की घुड़सवार सेना ने राणा सांगा के पश्चिमी हमले को बल प्रदान दिया। उसके बाद वे भी जुड़े जो राजपूताना के आकाश में कम चमकते थे, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और सिरोही के सरदार ने भी राणा सांगा में एक ऐसे नेता को देखा, जिसका अनुसरण किया जा सकता था। उनकी तलवारें गौरव के वादे और अलगाव के भय से खिंची हुई थीं। यहाँ तक कि मालवा के राजपूत वजीर मेदिनी राय भी गागरोन के बाद जागीरदार बने, उनके चंदेरी योद्धाओं ने सांगा की सेना को और मजबूत किया। विजय, विवाह और चतुर कूटनीति के जरिए, महाराणा सांगा ने एक ऐसा गठजोड़ रचा, साहस और सम्मान का एक ताना-बाना जो थार के रेगिस्तान से विंध्य तक फैला।

विवाह और रिश्तेदारी की भूमिका

विवाह भी उस वक्त राणा सांगा के गठबंधन का आधार थे, इसीलिए रिस्तो को भी उन्होंने सूझबूझ से बुना। रानी कर्णावती के अलावा भी उनकी कई पत्नी हुई (कुछ इतिहास यह संख्या २५ से ३० के बिच बताती हे) राजपूत परंपरा के अनुसार राजनैतिक सबंध अक्सर रिश्तेदारी से मजबूत बनते थे। इनमें से एक मारवाड़ की राठौड़ राजकुमारी थी, जिसने राव गंगा के कबीले से तनाव घटाया। दूसरा विवाह रणथंभौर के चौहानों से हुआ, एक ऐसा किला जिसका सामरिक महत्व राणा सांगा को प्रिय था। हर दुल्हन योद्धा, धन और निष्ठा भी अपने साथ लाई। एक तरह से देखा जाये तो उनके दहेज में सोने के साथ शौर्य, साहस, सेना और रक्त भी था। फिर भी, रानी कर्णावती उनकी प्रमुख रानी में से एक रहीं और उनके बेटे रतन सिंह द्वितीय, विक्रमादित्य और उदय सिंह द्वितीय उनकी विरासत के वारिस बने। 1522 में जन्मे उदय सिंह आगे चलकर मुगलों के खिलाफ चुनौती देने वाले महाराणा प्रताप के पिता बने।

इस बात में कोई दो राय नहीं है की विवाह से सबंध मजबूत बनते है लेकिन फिर भी ये विवाह केवल राजनीतिक ही नहीं थे, ये व्यक्तिगत भी थे। राणा सांगा अपनी पत्नियों के साथ सम्मान से पेश आते थे, उनकी आवाज़ महल में गूँजती थी, उनके रिश्तेदारों का दरबार में स्वागत होता था। कर्णावती विशेष रूप से एक शक्ति बनकर उभरीं, क्योंकि राणा सांगा की मृत्यु के बाद उनका शासन उनके भरोसे का प्रमाण था। कवियों ने उनकी सुंदरता और बुद्धि की प्रशंसा की। रानी कर्णावती एक सशक्त पत्नी और मेवाड़ की रानी बनी, जिसने अपने पति की वीरता को अपनी शक्ति से जोड़ा। इन विवाहों के जरिए राणा सांगा ने सुनिश्चित किया कि उनका गठजोड़ महज सुविधा का नहीं, बल्कि रिश्तेदारी का एक ऐसा जाल हो, जो राजपूताने के कबीलों को एक साझा नियति में बाँधे।

एकता की चुनौतियाँ

फिर भी, एकता एक नाजुक ज्योति थी, जिसे गर्व और विश्वासघात की हवाएँ आसानी से बुझा सकती थीं। राजपूत पहले योद्धा थे यही वजह थी की उनका सम्मान एक दोधारी तलवार की तरह था, जो शत्रु और मित्र दोनों को ही काटती थी। इस स्वभाव और व्यवहार का राणा सांगा को लगातार सामना करना पड़ा। क्योंकि राणा सांगा के पीठ पीछे भी कुछ सरदार जो उनके अधिकार से चिढ़ते थे, सहयोगी जो दबाव में डगमगाते थे और जागीरदार जिनकी निष्ठा भाग्य के साथ बदलती थी। जिसमे मारवाड़ के राव गंगा के पुत्र राव मालदेव राठौड़ एक उभरता सितारा थे, जिनकी महत्वाकांक्षा भी मेवाड़ के भविष्य की प्रतिद्वंद्विता का संकेत थी। रायसेन के तोमर सरदार सिलहाड़ी ने सांगा के साथ मिलकर काम किया, पर अवसरवाद की छवि के साथ। वह बहादुर तो थे लेकिन एक जिवंत संदेह का बीज, जो खानवा में फला और जहर बन कर मेवाड़ पर भारी पड़ा। मेवाड़ के भीतर भी पुरानी दुश्मनियाँ निरंतर सुलगती रहीं, जिनमे बनबीर जैसे कुलीन स्वतंत्रता की बात करते थे, उनकी तलवारें केवल सांगा की दृढ़ इच्छा से नियंत्रित थीं।

(अधिकतर जानकारी के लिए – यह वाही बनबीर है जिन्होंने राणा सांगा के मृत्यु के बाद मेवाड़ी साम्राज्य हथियाने के लिए राणा उदय सिंह को मारने की साजिश रची और वीर क्षत्राणी पन्ना धाय द्वारा दिए गए अपने पुत्र के बलिदान से उनका संरक्षण हुआ।)

राजपूत संहिता (उनकी नैतिकता के निति नियमो की एक शब्दावली या परंपरा) ही राजपूत इतिहास के नैतिक राजाओ के लिए स्वयं एक बाधा थी। सम्मान अपमान का बदला माँगता था, और सदी पुराने झगड़े सतह के नीचे तपते रहेते थे। एक कछवाहा सांगा के ध्वज तले राठौड़ के साथ लड़ सकता था, पर उनके पिता का खून अभी भी रेत पर जमा था। सांगा ने ताकत और कुशलता के मिश्रण से इस खतरे को पार किया। जब शब्द नाकाम हुए, तो उन्होंने उदाहरण पेश किया। उनके घाव, उनका कटा हाथ, उनकी लँगड़ाहट नेतृत्व की कीमत का जीवंत प्रमाण थे। लोग कर्तव्य से नहीं, विस्मय से उनका अनुसरण करते थे। “अपने शरीर को हमारे लिए देने वाले राजा का विरोध कौन करेगा?” एक कवि ने गाया, और यह सच साबित हुआ।

राणा सांगा बाहरी खतरे और गठजोड़ के संकल्प को परखते थे। गुजरात सल्तनत ने कमजोरियाँ तलाशते हुए डूंगरपुर पर हमला किया; लेकिन इडर में राणा सांगा का त्वरित प्रतिशोध उन्हें चुप कर गया। इब्राहिम लोदी के जासूसों ने कलह बोई, डगमगाते सरदारों को सोना देने की पेशकश की; लेकिन उस वक्त भी राणा सांगा ने ऐसी जीत से जवाब दिया, जिसने विश्वासघात को भी शर्मिंदा कर दीया। उनका सबसे बड़ा हथियार उनका सपना था, जो एक राजपूताने की नींव रखना था। वह संगठित और एकत्र राजपुताना जो न केवल युद्ध में, बल्कि राजपूताने से जुड़े लाभ के पक्षधर हर उद्देश्य में एकजुट हो। उन्होंने दिल्ली को वापस लेने और गुर्जर-प्रतिहारों के दिनों से खोए हिंदू साम्राज्य को पुनर्जनम देने की बात की। यह सपना खून में उबाल लाता था, एक ऐसा आह्वान जो छोटी प्रतिद्वंद्विताओं को दबा देता था।

गठबंधन का शिखर

1526 तक, सांगा का गठजोड़ के माध्यम से एकत्रीकरण का कार्य अपने चरम पर पहुँच चूका था। इतिहासकार अनुमान लगाते हैं कि उनकी सेना में अब लगभग 1,00,000 योद्धा थे (जो सिसोदिया, राठौड़, कछवाहा, हारा, चौहान और अन्य राजपूत द्वारा संगठित सेना के रूप में थे।) राजपूत इतिहास में यह एक अद्वितीय शक्ति का प्रमाण था। उस वर्ष पानीपत में इब्राहिम लोदी को हराने वाले मुगल आक्रमणकारी बाबर ने ‘बाबरनामा’ में सांगा की ताकत का जिक्र किया और उन्हें हिंदुस्तान का सबसे महान राजा भी कहा। यह कोई खोखली प्रशंसा नहीं थी किंतु राणा सांगा की बहादुरी, दूरंदेशी और चतुराई का कमाल था। राणा सांगा के गठजोड़ कौशल ने कबीलों के टुकड़ों को एक महाशक्ति में बदला था, जिसकी छाया गंगा नदी के सलग्न के मैदानों तक पड़ रही थी। उन्होंने चित्तौड़ से रणथंभौर, कुंभलगढ़ से गागरोन तक के किलों पर नियंत्रण रखा हुआ था, जो एक पत्थर और लोहे का एक जाल समान संरचना बनता था और यही विस्तार उनके राज्य की रक्षा करता था।

अलग रहेकर सभी कमजोर थे लेकिन एकत्र होकर यह अधिक मजबूत थे, क्योंकि गठजोड़ की वास्तविक ताकत ही उसकी विविधता में समाहित थी। मारवाड़ की घुड़सवार सेना मैदानों में गरजती थी, आमेर के तीरंदाज ऊँचाइयों से मृत्यु बरसाते थे, मालवा की पैदल सेना दृढ़ता से पंक्तियों में खड़ी रहती थी। लेकिन राणा सांगा ने उन्हें एक कुशल तलवारबाज युद्ध कौशल से संभाला, जिसके हर प्रहार सटीक थे और हर जीत उनके नेतृत्व का साक्ष्य। उनका दरबार राजाओं का मेला बन गया था, जिसमे राव गंगा, पृथ्वीराज कछवाहा, मेदिनी राय और अन्य सरदार सामिल थे, जो भय से नहीं बल्कि उनके संकल्प में विश्वास से मेवाड़ के समक्ष झुकते थे। कवि इसे मेवाड़ का स्वर्ण युग कहते थे, एक क्षणिक पल ही तो था जब राजपूताना राणा सांगा के नेतृत्व में एक होकर खड़ा था।

खानवा की काली छाया

लेकिन एकता भी सभी नश्वर वस्तुओं की तरह, अपने विनाश के बीज स्वयं बोती है। 1526 में बाबर के आगमन ने सांगा के गठजोड़ की ऐसी परीक्षा ली, जो पहले कभी नहीं देखी गई थी। मुगलों की तोपें और बारूद एक नया आतंक लेकर भारत की भूमि पर आए, उनकी महत्वाकांक्षा एक तरह से राणा सांगा के अपने सपनों का प्रतिबिंब थी लेकिन विनाश के लिए उत्कर्ष के लिए नहीं। राणा ने 1527 में खानवा के मैदान में अंतिम युद्ध के लिए अपने सहयोगियों को एकत्र किया, दिल्ली का सिंहासन उनकी नजरों में था। यह राजपूताने की सेनाए एकजुट होकर चली जिसमे 1,00,000 योद्धा, उनके ध्वज रंगों की बहार लिए हुए चल रही थी लेकिन पर सतह के नीचे दरारें चौड़ी हो रही थीं। युद्ध के मैदान में सिलहाड़ी का विश्वासघात, जो 30,000 सैनिकों को बाबर के पक्ष में ले गया।  राणा सांगा की मजबूत सेना के लिए यह क्षण पीठ में छुरा सा था। यह धोखा भी उसी बिखराव से जन्मा था, जिसे राणा सांगा जोड़ना चाहते थे। लेकिन अंत में विश्वासघात ही उनके लिए विध्वंश बना।

1527 में खानवा के मैदान में हुए विश्वासघात ने एकत्रीकरण को वो धक्का दिया जिसमे महाराणा सांगा का एक राजपूताने का सपना बिखर गया। मेवाड़ के धवज तले एकत्र सेनाए कुछ हद तक बिखरी, पर उसकी आत्मा को राणा सांगा के संकल्प ने नहीं टूटने दिया। सांगा का सपना निरंतर जीवित रहा, उसी तरह जिस तरह बाप्पा रावल की क्रांति हर मेवाड़ी वीर में प्रवाहित हुई। उनके दृढ़ संकल्प की एक ज्योति निरंतर रही, जो उनके पुत्रों और पौत्रों तक भी पहुँची। राणा सांगा की गुप्त मृत्यु के बाद भी मेवाड़ नही डिगा क्योंकि उसे रानी कर्णावती ने एकसूत्र में बाँधे रखा; उनकी संरक्षकता महाराणा प्रताप के लिए एक सेतु बनी, जो उसी अग्नि से अकबर को चुनौती देंगे। राणा सांगा ने जो एकता रची, वह अधूरी थी, मानवीय कमजोरियों से जकड़ी थी, फिर भी एक चमत्कार के समान थी। एक ऐसा राजपूताना, जो क्षण भर के लिए ही सही लेकिन अपने टुकड़ों से ऊँचा खड़ा हुआ। वे एकता के सूत्रधार बनकर उभरे थे, वह राजा जिसने प्रतिद्वंद्वियों को भाई बनाया, जिसका आजाद हिंदुस्तान का स्वप्न हार में भी निरंतर एक आग बनकर धधकता रहा।


For More : Click Here (Full Bundle of Articles About Maharana Sanga)

|

|

, , ,

|


One response to “सशक्त साम्राज्य और राजपूताने का एकीकरण”

Leave a Reply to अखंड स्वाभिमान: महाराणा सांगा और मेवाड़ की शाश्वत महिमा – Kaalchakra Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.