विजेता का पतन: खानवा, बाबर और विश्वासघात
सिहांसन पर आरूढ़ होने से लेकर सन 1526 तक, महाराणा सांगा राजपूताने के शिखर पर एक दिग्गज मुखिया के रूप में खड़े थे। उनकी तलवार सुल्तानों के रक्त से रँगी थी, उनका गठजोड़ कौशल मेवाड़ के ध्वज तले एकजुट कबीलों का समूह बनकर खड़ा था। उनकी विजयों ने दिल्ली, मालवा और गुजरात को घुटनों पर ला दिया था, जिससे मेवाड़ का साम्राज्य अपने चरम पर पहुँच गया था। उनके लिए कहा जाता था की राणा सांगा यानी एक ऐसी शक्ति, जो उत्तरी भारत के सबसे बड़े साम्राज्यों से टक्कर लेती थी। फिर भी कुछ भी अक्षुण नहीं होता सिवाय शौर्य के, मेवाड़ के क्षितिज पर एक नई छाया मँडराने लगी। यह छाया किसी पुराने शत्रुओं की नहीं, बल्कि हिंदूकुश के पार से आए एक विजेता की थी जिसने नैतिकता को किनार कर विनाश के सहारे शासन को मजबूत किया था। तैमूर और चंगेज खान के वंशज, तैमूरिद राजकुमार बाबर ने आधुनिक तोप गोलों और शास्त्रों के साथ भारत में कदम रखा था। उनकी तोपों ने 21 अप्रैल, 1526 को पानीपत में इब्राहिम लोदी की सेना को तहस-नहस कर दिया। मुगलों का उफान इस जित के साथ शुरू हो चुका था, लेकिन मेवाड़ का शेर महाराणा सांगा, इसमें खतरा और अवसर दोनों को एकसाथ देख रहा था। 17 मार्च, 1527 को लड़ी गई खानवा की लड़ाई में राजपूत वीरता और मुगल नवाचार आमने-सामने आए। उस भूमि पर एक ऐसा युद्ध हुआ, जो हिंदुस्तान की नियति तय करने वाला था। यह सांगा की सबसे बड़ी चुनौती थी, यह उनके शौर्य का परीक्षण और अंदर उठने वाले विद्रोहियो के पक्ष उनके पतन की कहानी का प्रारंभ था। विश्वासघात युद्ध को सबसे अधिक प्रभावित करता है, इसी विश्वासघात ने मेवाड़ के उस युद्ध की शौर्य विरासत को दुखद गौरव से भर दिया।
एक नए दुश्मन का उदय
पानीपत में बाबर की जीत हिंदुस्तान में एक ऐसी गर्जना थी, जिसकी गूँज पूरे भारत में सुनाई दी। दिल्ली का प्रभाव भारत के हर साम्राज्य पर सकारात्मक या नकारात्मक रहा है। लेकिन अब दिल्ली का मिजाज अलग था, क्योंकि राणा सांगा का पुराना शत्रु इब्राहिम लोदी मारा जा चूका था और उसका वंश समाप्त हो चूका था। दिल्ली सल्तनत अब लोदी न रहकर मुगलों के कब्जे में आ चुकी थी। बाबर का युध्द कौशल तेज दिमाग से अधिक निर्ममता पूर्ण ह्रदय से अलग खड़ा होता था। उसमे लुटेरो वाली निर्ममता भरपूर थी, उपर से आधुनिक तोप गोलों का आधार भी लेकिन दिल्ली का दुर्भाग्य यह की वह कोई क्षणिक लुटेरा नहीं था। उसका मकसद एक साम्राज्य गढ़ना था, उसकी नजर हिंदुस्तान की दौलत, सोहरत और जाहोजलाली पर टिकी हुई थी। आगरा में अपनी नई राजधानी बसाने के बाद उसने उस खंडित भूमि का जायजा लेना प्रारंभ किया, जो युद्धरत राजाओं के बीच बँटी थी और लूट के लिए तैयार थी। फिर भी, यह उसकी सोच जितना आसान नहीं था क्योंकि उस वक्त एक शक्ति सबसे ऊँची खड़ी थी। जिसको जुकाना कठिन था वह था राणा सांगा के अधीन मेवाड़, एक ऐसा राजा जिसकी ताकत बाबर द्वारा मजबूत समझे गए सुल्तानों को भी मात देती थी। ‘बाबरनामा’ में बाबर ने सांगा की प्रशंसा की, उसे भारत का सबसे महान शासक कहा। उसने राणा के लिए लिखा की वे एक ऐसा पुरुष था, जिसने सैकड़ों लड़ाइयाँ लड़ीं और इसके प्रमाण में घाव भी सहे। बाबर के लिए राणा सांगा केवल प्रतिद्वंद्वी नहीं था, किंतु एक पुरस्कार था क्योंकि समकालीन समय में एक ऐसा दुश्मन, जो उसकी ताकत के मुकाबले का था।
राणा सांगा ने बाबर के उदय को सतर्कता और महत्वाकांक्षा के मिश्रण से देखा। उसने इब्राहिम लोदी को दो बार खतौली और धौलपुर में हराया था, यही वजह थी की लोदी सल्तनत ढहने की कगार पर पहुँच गई थी। वास्तव में इतिहासकार मानते है की पानीपत बाबर के लिए उसकी अप्रत्यक्ष जीत थी; बाबर ने तो बस वही पूरा किया था, जो राणा सांगा ने शुरू किया था। दिल्ली में मुगलों की मौजूदगी ने सांगा के महान स्वप्न को जगा दिया। दिल्ली सदैव से भारत की राजधानी रहा आहे और यही वजह थी की प्राचीन राजधानी पर कब्जा करना राणा सांगा का स्वप्न भी था ऊर जिद्द भी। वे चाहते थे प्रतिहारों के दिनों से खोए हुए हिंदू साम्राज्य को पुनर्जनम देना और अपने एकत्रीकरण प्रयास के बल से हिंदुस्तान के सिंहासन को राजपूताने के पक्ष में रखना। लेकिन शायद राणा सांगा ने बाबर को कम आँका, उसे एक विदेशी लुटेरा मात्र समझ लिया जो खजाना भरते ही काबुल लौट जाएगा। यह अहंकार और बाहरी लोगों के प्रति राजपूतों की तिरस्कार भरी समकालीन सोच से जन्मी भूल थी। यही भूल उनकी घातक गलती बनी, जो आगे चलकर मेवाड़ के सपने को तोड़ने की कगार तक ले जा सकती थी।
दोनों राजा एक-दूसरे के इर्द-गिर्द राजनैतिक खेल से विजय की आश और अवसर की खोज में मँडराने लगे। राणा सांगा ने एक दूत भेजा जिसने बाबर से भारत छोड़ने की माँग की, यह कहते हुए कि यदि वह दिल्ली का तख़्त छोड़ दे, तो शांति से रह सकता है। यह दूत बनकर गया था एक तोमर सरदार राजा शिलादित्य, जिसे सिलहाड़ी के नाम से जाना जाता था। इसी दूत ने अंत में खेल को पलट दिया। सांगा के दिल्ली छोड़ने के विकल्प को अपने जित के अभिमान से आहात हुए बाबर ने ठुकरा दिया। लेकिन उसने राणा सांगा की इस चुनौती को अपने नवजात साम्राज्य के लिए खतरे के रूप में देखा। उसने राणा सांगा को उस राजा के रूप में देखा, जिसका साहस और सामर्थ्य उसकी अति महत्वाकांक्षाओं को शुरुआत में ही कुचल सकता था। राणा सांगा की यह कूटनीति अवज्ञा में बदल गई, और युद्ध अनिवार्य हो गया। युद्ध का आगाज संदिग्ध बना हुआ था, लेकिन युद्ध अब आवश्यक हो चूका था। युद्ध को द्वार पर देखते हुए राणा सांगा ने अपनी सेना जुटाई, अपने एकत्र किए कबीलों को बुलाया जिनकी संख्या 1,00,000 बताई गई है, जिसमे सिसोदिया, राठौड़, कछवाहा, हारा और अन्य राजपूत चल पड़े थे। सेना का विजयकुच लोहा और ध्वजों का एक सागर बना रही थी। बाबर खानवा में डटा था (जो आज के संदर्भ में आधुनिक भरतपुर में फतेहपुर सीकरी के पास एक गाँव) उसकी छोटी सेना तोपों और बारूद से सज्ज थी, जो उस समय के संदर्भ में राजपूतों के लिए अनजान हथियार थे। खानवा के मैदानों में एक ऐसे युद्ध का मंच तैयार था, जो भारत की नियति को नया रूप देने वाला था।
खानवा की लड़ाई: वीरता और अग्नि का मिलन
17 मार्च, 1527 की सुबह ठंडी और स्वच्छ थी। खानवा के मैदान आने वाले टकराव के लिए एक पुष्ठभूमि के रूप में तैयार थे। सांगा की सेना क्षितिज पर फैली थी, जिसमे अग्रिम पंक्ति में घुड़सवार, केंद्र में पैदल सेना, किनारों पर तीरंदाज चल रहे थे। मेवाड़ की सेना 1,00,000 योद्धाओं की फौज, जिसमे गूंज रहा उनका युद्ध-नाद उनके पूर्वजों के लिए एक विजय स्त्रोत था। सेना का नेतृत्व करते हुए वे सबसे आगे सवार थे। एक जख्मी योद्धा जो अपने घोड़े पर सवार था, उनकी एकमात्र भुजा जो तलवार थामे हुए थी और उनका अपंग पैर रकाब से टिका हुआ था। उनकी उपस्थिति ही युद्ध मदन में सेना के लिए एक प्रकाश-स्तंभ के समान थी। जख्मी, एक आँख वाला, अडिग राजा, जो राजपूत साहस, स्वाभिमान, सामर्थ्य और शौर्य का प्रतीक था। उनका एक मात्र नियम था अंतिम साँस तक लड़ना, और हार मानने से पहले मरना। उनके साथ उनके सहयोगी भी सवार थे – मारवाड़ के राव गंगा, आमेर के पृथ्वीराज कछवाहा, चंदेरी के मेदिनी राय और अनगिनत सरदार, जिनकी निष्ठा एक दशक की विजयों में गढ़ी गई थी।
बाबर की सेना छोटी थी, शायद 20,000 लेकिन फिर भी आधुनिक तोपों से सज्ज और भयंकर। उसने अपने सैनिकों को रक्षात्मक पंक्ति में खड़ा किया, गाड़ियों को एक अस्थायी किले-सा जोड़ा, उनके बीच तोपें रखीं, पीछे तीरंदाज और बारूदधारी तैनात थे। उसकी रणनीति गैर-पारंपरिक थी, जो मध्य एशियाई युक्तियों और ओटोमन नवाचार का मिश्रण, जो भारत के किनारों से दूर युद्धों में सिद्ध थी। वह जानता था कि राजपूतों की ताकत उनके धावा बोलने में थी, उनका साहस एक ऐसा धारदार शस्त्र था जो कमजोर दुश्मनों को चीर सकता था। लेकिन शैन्य संख्या कम के सामने उसकी तोपें ‘तुफंग और ज़र्ब-ज़ान’ उसका तुरुप का पत्ता थीं। आधुनिक रूप से विदेशी बनावटी तोपों की गर्जना एक ऐसा आतंक थी, जिसका सामना राजपूतों ने कभी नहीं किया था। तोपों से लड़ना राजपूत सेना के लिए, पूर्ण रूप से अलग अनुभव था। कुछ लोग कहेते हे की सूरज चढ़ते ही बाबर ने युद्ध से पहेले प्रार्थना की ‘यदि अल्लाह उसे जीत दे, तो वह शराब छोड़ देगा’ सुलतान के भीतर छिपे इंसान की एक दुर्लभ झलक को दर्शाने के लिए शायद यह कहा गया हो।
युद्ध राजपूतों के धावे से शुरू हुआ – घुड़सवारों की लहर बाबर की पंक्तियों की ओर गरजती हुई आगे बढ़ी। राणा सांगा ने हमले का नेतृत्व किया, उनकी आवाज शोर को चीरती हुई: “मेवाड़ के लिए! सम्मान के लिए!” 40,000 घुड़सवारों ने धावा बोला, धरती काँप उठी, उनके भाले मुगल बाहरी घुड़सवारों को भेदते हुए, उनकी तलवारें सुबह की रोशनी में चमक रही थीं। शुरुआती टक्कर एक जीत थी, क्योंकि राजपूत धावे में बाबर की अग्रिम पंक्ति टूट गई और उसके सैनिक राजपूत क्रोध के आगे भागे। कुछ पल के लिए जीत करीब लग रही थी, मुगल शक्ति तूफान में नरकट-सी डगमगा रही थी। सांगा ने अवसर को समझते हमला तेज किया, उनका शैन्य आगे बढ़ा, उनकी रफ्तार प्रकृति की शक्ति सी थी। एक पल को ऐसा लगा कि राणा सांगा का सपना सच होगा और दिल्ली के द्वार उनके रक्तरंजित हाथों से खुल जाएँगे। लेकिन तोपों की शक्ति को वे नहीं समझ पाए, जो उनके लिए पुर्णतः नविन युद्ध था।
जित पास लग रही थी लेकिन फिर अचानक से तोपों की गर्जना गूँजी। एक आकाश-भेदी धमाका हवा को चीर गया, बाबर की गाड़ियों से धुआँ और लपटें उठ रही थीं। लोहे के गोले राजपूत पंक्तियों को चीरते हुए पार हो रहे थे, उस हमले से घोड़े चीखते हुए गिरे और सैनिक पल में तहस-नहस हो गए। नजदीकी युद्ध यानी भाला, तलवार और सामर्थ्य युद्ध के लिए तैयार राजपूतों के पास इस नए दानव का जवाब नहीं था। क्योंकि तोप गोलों को रोकने में उनकी ढालें बेकार थीं, उनकी वीरता दूर से लड़ने के संदर्भ में मखौल बन गई। लेकिन राणा सांगा का संकल्प अडिग था उन्होंने अपने सैनिकों को एकत्र किया, उनकी एक आँख शत्रु पर टिकी और अराजकता में भी उनकी तलवार उठी हुई थी: “आग से मत डरो—उसके स्रोत पर हमला करो!” उन्होंने चीखकर उन्हें तोपों की ओर बढ़ाया। दूसरी लहर ने फिर से हमला बोला, उसीके साथ पैदल सेना और घुड़सवार एकसाथ संकल्प के साथ दूरी घटाते हुए आगे बढ़ने लगे। वे गाड़ियों तक पहुँचे, रस्सियाँ काटीं, तोपचियों को काटा, स्टील के उन्माद में कुछ तोपों को शांत किया। इस अचानक हमले से बाबर की पंक्ति डगमगाई और उसके तीरंदाज राजपूत तलवारों के नीचे लड़खड़ाए हुए भाग खड़े हुए।
लेकिन विश्वासघात से अधिक घांव कोई नहीं दे सकता जो, राजपूत इतिहास का पुराना और निर्णायक पलो में साथ छोडकर डदम घोंटने वाला भूत सामने आ खड़ा हुआ। रायसेन से 30,000 की टुकड़ी संभाल रहे सिलहाड़ी सरदार ने बाबर के पक्ष में पाला बदल लिया। यह विश्वासघात सोने के लालच, तोपों के डर, या सांगा से पुरानी दुश्मनी से प्रेरित था या कुछ और लेकिन इसका कोई अर्थ नही बनता। युद्ध में पीछे हठ संभव नहीं होती, परिणाम यह हुआ की उसके धोखे ने गठजोड़ के किनारे को ही चीर दिया। मुगल सेना ने खाई से छलांग लगाई और आगे बढ़ने लगी, उनकी बंदूकें मृत्यु बरसाती हुईं आगे आई जिसमे उनके घुड़सवार घेरने के लिए चक्कर काटते हुए घेरा बनाने लगे। राणा सांगा की सेना विश्वासघात से कमजोर पड़कर टूटने लगी, क्योंकि राठौड़ बाएँ और कछवाहा दाएँ संभाले हुए थे पर केंद्र ही लड़खड़ा गया। बाबर ने मौके को भुनाया, उसकी तोपों ने गोले बरसाए, उसके घुड़सवारों ने राजपूतों के पिछले हिस्से को तहस-नहस किया। युद्ध का मैदान खून और धूल से भर गया, हवा मरते सैनिकों की चीखों से गूँज उठी।
सेना को विश्वासघात ने तोड़ दिया और सांगा के शरीर को घांव और धोखे ने। लेकिन राणा सांगा का संकल्प और सामर्थ्य नहीं डगमगाया, उन्होंने ने राक्षस सा युद्ध लड़ा। लड़ते लड़ते उनका घोड़ा ढेर हुआ, एक तीर उनकी पसली में घुसा, पर वह लँगड़ाते हुए फिर उठे और बाबर की सेना पर बवंडर बनकर बरसने लगे। केंद्र में उठे विद्रोह का अंदाज लगते ही अन्य वफादार सेना ने तुरंत खाई को भर दिया। उनके चारों ओर उनके वफादार राजा पृथ्वीराज कछवाहा, मालदेव राठौड़ और झाला सरदारने ढाल बनाई। विश्वासघात के कारण उपजी हताहत में अनगिनत सिपाही मरे लेकिन सांगा का शरीर मुगल ज्वार के खिलाफ दीवार सा खडा रहा। उनका अप्रतिम स्वरूप उनके साथी राजाओ ने उस दिन देखा, एक के बाद एक घाव खाए, खून उनके कवच को भिगोता रहा, फिर भी वह डटे रहे। कुछ ने उन्हें युद्ध दानव के रुप में दर्शाया – एक दानव, जो भाग्य को ललकार रहा था। सेना का साहस बढ़ा और अपने राणा को न झुकते देख उसके सैनिकों ने ऐसी क्रूरता से युद्ध लड़ा कि बाबर की सेना हतप्रभ रह गई। लेकिन हालात अब असंभव थे, शायद विश्वासघात की नींव पहेले से निर्धारित थी। अन्यथा बाबर सिर्फ 20,000 सैनिक लेकर युद्ध में न उतरता। लेकिन उसने विश्वासघात परख लिया था आयर जाल उसी आधार और घड़ा था, बंदूक और तोपों से लड़ने में राजपूत सेना की असमर्थता को भी वह अंदर पनपे विश्वासघात से जान चूका था। परिणाम युद्ध में जित असंभव हो चुकी थी, लेकिन राणा लड़ता रहा। कुछ वक्त के बाद स्थिति अत्यधिक विकट हुई और सांगा बेहोश होकर गिर पड़े, कोई ब्लेड या गोली उन्हें लगी हुई थी, उनका क्षत विक्षत शरीर नरसंहार के बीच कुचला गया सा पड़ा था। उन्हें कुछ वफादार जागीरदारों ने ढूँढ कर मृत समझकर मैदान से दूर ले जाया गया। उनके शरीर को सुरक्षित रूप से पृथ्वीराज और मालदेव राजपूत पंक्तियाँ बिखर जाने पर युद्ध भूमि से दूर ले गए।
जित के करीब आकर राणा सांगा का अडिग संकल्प विश्वासघात की कटार से परास्त हुआ। घायल राणा सांगा को मैदान से दूर ले जाया गया लेकिन युद्ध वे हार गए। हारी ही सेना के साथ उदार व्यवहार नहीं हुआ, बाबर की सेना ने हजारों को काट डाला, खानवा का मैदान एक राजपूत विश्वासघात के कारण हजारो सपनों की कब्र बन गया। मुगल ने विजय का दावा किया और उसका साम्राज्य सुरक्षित हुआ, शायद अल्लाह से उसकी प्रतिज्ञा पूरी हुई या विश्वासघात से उसकी किस्मत बदली। सांगा की अनुपस्थिति में सेना, यह मानकर कि उनका राजा मर गया, तितर-बितर हो गई। खानवा की इस हार ने सिर्फ राजपूताने की राजधानी विजय की महत्वकांक्षा ही नहीं उनकी एकता के संकल्प के सपने को भी चूर कर दिया। खानवा का युद्ध समाप्त हुआ और इसके साथ ही राणा की दिल्ली की आशा भी धूमिल हो गई।
वापसी और शपथ
खानवा के युद्ध मैदान से सुरक्षित निकाले गए राणा सांगा दौसा के पास बसवा में होश में आए, जहाँ उनके वफादार उन्हें मुघलो से संरक्षित करते हुए ले गए थे। उनके घाव गहरे थे – मानसिक भी और शारीरिक भी। कुछ लोग कहते हैं, अस्सी पुराने निशानों के साथ एक दर्जन नए घाव भी थे, फिर भी उनकी आत्मा पहले से कहीं अधिक धधक रही थी। उन्हें खानवा की हार, सिलहाड़ी के विश्वासघात और हजारों के मारे जाने की खबर मिली तब वे अत्यधिक आहात हुए। कोई कमजोर इंसान तो उन घांव से ही शायद टूट जाता, पर राणा सांगा साधारण नहीं थे। उन्होंने होस में आते ही कसम खाई की ‘जब तक वे बाबर को हराकर दिल्ली पर कब्जा नहीं कर लेते, चित्तौड़ नहीं लौटेंगे’। यह राजपूत सम्मान से जन्मी शपथ थी, एक विद्रोह के विरोध में जो उनके टूटे शरीर का मखौल उड़ाता था। घांव भरने में लंबा समय लगा लेकिन होस में आते ही उन्होंने सेना का पुनर्निर्माण कार्य शुरू किया, अपने बिखरे सहयोगियों को एक बार फिर बुलाया। उनकी आवाज खानवा की राख में एक साफ पुकार थी। लेकिन एकत्रीकरण का प्रयास धक्का खा चुका था, पर टूटा नहीं था। राणा सांगा के जीवित होने का संदेश राजपूताने में फ़ैल चूका था। राणा की मक्क्मता को देखकर लोग उनके साथ फिर जुड़े, क्योंकि राणा का साहस देखकर हार से भी उनका भरोसा डगमगाया नहीं।
राणा सांगा की हार के बाद अब उत्तर भारत बाबर के आधीन हो चूका था। दिल्ली के सुलतान बने बाबर ने अपनी राजधानी काबुल से आगरा स्थानांतरित कर दी, उसी के साथ उस भूमि पर उसकी पकड़ मजबूत होती गई जिस पर राणा सांगा अपना दावा करना चाहते थे। अपने दरबारी लोगो द्वारा उसने खानवा को पानीपत से भी बड़ी जीत के रूप में बताया, क्योंकि खानवा के युद्ध ने राजपूताने की सबसे मजबूत आवाज बने राणा सांगा के राजपूत पुनर्जागरण के विचार और प्रयास को कुचल दिया। लेकिन उसे सांगा के जीवित होने की खबर मिल चुकी थी, फिर भी उसने राणा का पीछा नहीं किया। कुछ लोगो की माने तो शायद सम्मान के कारण या शायद उस एक आँख वाले शेर से फिर टकराने की कीमत चुकाने से डरकर। लेकिन राणा सांगा का पीछे हटना आत्मसमर्पण तो नहीं था – यह एक ठहराव था, एक ऐसे युद्ध के लिए ताकत जुटाने की कोशिश या स्वप्न जिसे वह जीवित रहकर लड़ नहीं सके।
गौरव: अंत से प्रारंभ
राणा सांगा के देह त्याग के लिए इतिहास में दो अलग अलग तिथि का उल्लेख मिलता है, जिसमे एक 30 जनवरी को या शायद 20 मई को कालपी में सन 1528 में हुआ। राणा सांगा ने खानवा के कुछ महीनों बाद अपना देह त्यागा, लेकिन उनके अंत को लेकर मिलने वाले विवरणों में भिन्नता रहस्यमयता को दर्शाती है। उनका अंत और उसके कारण रहस्य में डूबे हुए है। इन कारणों में चर्चित विभिन्न आधार मिलते है। कुछ सरदारों द्वारा जहर दिए जाने की फुसफुसाहटें या फिर बनबीर जैसे रईस या मालदेव राठौड़ का नाम जिनकी महत्वाकांक्षा अपने पिता की छाया में बढ़ी। उन चर्चाओं की मने तो यह वो लोग थे जो डरते थे कि बाबर का पीछा करना शायद राणा के साथ साथ उन्हें भी बर्बाद कर देगा। अन्य कहते हैं, दशकों के युद्ध से तबाह उनका शरीर थक गया, अस्सी से अधिक घाव अब उनकी दृढ़ इच्छा के लिए भी असहनीय थे। सच जो भी हो, वे वैसे ही मरे जैसे जिए। मातृभूमि के संरक्षण के लिए विद्रोही, अपंग लेकिन मजबूत, मृत्यु तक उनकी नजर दिल्ली पर टिकी रही और उनकी शपथ अधूरी लेकिन अटूट रही।
खानवा के युद्ध में जो कुछ हुआ वह राणा और मेवाड़ की हार थी, फिर भी इसने सांगा की विरासत को दुखद वैभव से भी ताज ही पहनाया। सीधे तौर पर देखे तो वे कमजोरी से नहीं, एक नए युग के हाथों गिरे जिसे वे रोक नहीं सके। बाबर के साथ आये बदलाव भारत के परंपरागत युद्ध के लिए नए थे, तोपों और बारूद ने एक बदलाव की शुरुआत की जिसका जवाब लम्बे समय तक राजपूतो के पास नहीं था। वही आंद्रे विंक जैसे इतिहासकार मानते हैं कि पानीपत से अधिक खानवा ने मुगल शासन को मजबूत किया, और उसीने राणा सांगा के राजपूत पुनरुत्थान के संकल्प को भी तोड़ा। यदि सिलहाड़ी डटा रहता, यदि बंदूकें चुप रहतीं, तो राणा सांगा भारत की नियति को फिर से लिखने के लिए समर्थ शासक थे। इसके बजाय, उनके पतन ने बाबर के उत्तराधिकारियों का मार्ग प्रशस्त कर किया – एक वंश, जो सदियों तक राज करेगा। बाबर के हर उस जुर्म के लिए जिम्मेदार बना वह विश्वासघात, जो खानवा के युद्ध में घट गया। राणा सांगा का देह तो छुट गया लेकिन उनकी महान आत्मा और संकल्प बचे रहे। राणा सांगा का संकल्प वह आग थी जिसकी चिंगारी उनके पौत्र महाराणा प्रताप में फिर भड़की, जिन्होंने उसी अग्नि, संकल्प, सामर्थ्य और स्वाभिमान से अकबर को ललकारा। खानवा अंत नहीं था, यह उस आग का आरंभ था जो मेवाड़ के लहू में बहता रहा। खानवा एक कठिन परीक्षा थी, जब राणा सांगा की वीरता सबसे विपरीत हालात में सबसे अधिक तेज चमकी। वे एक तख़्त से गिरे लेकिन शर्म से नहीं, गौरव से। उनका नाम आज भी एक दहाड़ है, जो युगों युगों तक हर स्वाभिमानी राजपूत की आत्मा में अनंत तक गूँजती रहेगी।
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