महाराणा सांगा – ताज के पीछे का आदमी


महाराणा सांगा – ताज के पीछे का आदमी

महाराणा सांगा का नाम इतिहास में एक योद्धा के रूप में अमर हुआ। राणा सांगा का अर्थ था एक राजा, एक सूत्रधार, एक ऐसे महानायक के रूप में वे प्रस्थापित हुए, जिसने अपनी तलवार की धार और दूरदर्शिता की शक्ति से साम्राज्यों को अपने संकल्प के आगे झुकाया। उनके युद्धों ने राजपूताने को नया स्वरूप दिया, उनके गठजोड़ों ने इसके कबीलों में क्षणिक एकता का बीज बोया और उनकी अवज्ञा की गूँज उत्तरी भारत के मैदानों में प्रतिध्वनित हुई। लेकिन मेवाड़ के ताज के पीछे चलती रही सैकड़ों लड़ाइयों के निशानों के नीचे भी एक मजबूत इंसान का हृदय धड़कता था। वह राणा सांगा का एक अलग स्वरूप थे जो एक पति, एक पिता, एक आत्मा, जो कर्तव्य और धर्म से बंधी थी के अर्थ में भी जिए। हमने अक्सर इतिहास में सिर्फ युद्ध को पढ़ा हें, लेकिन युद्ध से अलग भी जीवन हुआ करते थे। हर एक राजा का जीवन, जो राणा सांगा ने भी जिया। राणा सांगा को अगर वास्तविकता में समझना हे तो उन्हें युद्ध के मैदान से परे देखना है। उनकी एक आँख वाली निगाह को, जो संदेह को भेदती थी; एक अपंग शरीर को, जो एक राज्य का बोझ उठाता था; और एक ऐसी आत्मा को, जो देह के डगमगाने पर भी अडिग और निर्भय रही। यह संग्राम सिंह नामक उस इंसान की कहानी है, जो मांस-मज्जा का एक प्राणी था, लेकिन उसकी महानता उसके खिताबों से कहीं बड़ी थी। एक राजपूत, जिसका जीवन साहस, सम्मान और मेवाड़ की अटूट इच्छाशक्ति का जीवन संगीत बन गया।

अग्नि में तपता हुआ शरीर

राणा सांगा से मिलना एक जीवंत किंवदंती से रू-ब-रू होना था, क्योंकि वे एक ऐसे पुरुष थे जिनकी शारीरिक बनावट युद्ध और सहनशक्ति की गाथा को कहती थी। इतिहासकार उनके वर्णन में चौड़े कंधों और प्रभावशाली कद की बात करते हैं, हालाँकि वर्षों और घावों ने उन्हें हल्का सा झुका दिया था, लेकिन फिर भी जैसे तूफानों से झुलसा एक बलूत का वृक्ष खड़ा रहेता हे उसी तरह वे ऊँचे कद के साथ खड़े थे। उनका चेहरा उनके जीवन का नक्शा था: एक आँख जवानी में किसी झड़प में खो गई थी, जिसका खाली गड्ढा उनके भाइयों की प्रतिद्वंद्विता की स्मृति बना हुआ था। दूसरी आँख, गहरे तेज का एक चमकता स्फटिक, जो सबसे साहसी दुश्मनों को भी बेचैन कर देता था। उनका बायाँ हाथ कोहनी पर खत्म होता था, जो 1517 में खतौली में किसी अफ़ग़ान द्वारा काटा गया था, लेकिन वह ठूंठ उनके बलिदान का प्रतीक था। दाहिना पैर लँगड़ाता था जो खतौली के उसी युद्ध में एक तीर से अपंग हुआ था, जिसके चलते उन्हें विश्राम के पलों में लाठी या अपने घोड़े का सहारा लेना पड़ता था। उनके शरीर पर निशान थे, कुछ कहते हैं अस्सी, हालाँकि हर कवि के साथ यह संख्या बढ़ती गई, क्यंकि हर चिह्न तलवारों और तीरों से आमने-सामने की लड़ाई का साक्षी था। फिर भी, सांगा इन निशानों को बोझ नहीं, गर्व की तरह ढोते थे। राजपूत परंपरा में, योद्धा के घाव उसका सम्मान थे, जो यह दर्शाते थे कि उसने मृत्यु को आँखों में देखा और जीवित लौटकर विजयश्री का वरन किया। जब वे युद्ध में सवार होते, उनकी एकमात्र भुजा घातक कुशलता से तलवार चलाती थी और उनके सैनिक एक अपंग को नहीं, बल्कि युद्ध के देवता को रूबरू देखते थे। उनकी गहरी, गूँजती आवाज़ युद्ध के कोलाहल को चीरती थी – एक हुंकार, जो भय को भी क्रोध में बदल देती थी। एक समकालीन कवि ने उनके लिए लिखा, “वह इंसानी देह में एक शेर था,” और यह छवि तुरंत सुनने वालो के झहन में चिपक गई। क्योंकि उन्हें जानने वाले भी समझते थे की राणा सांगा, जख्मी मगर अखंड, एक शिकारी की तरह हे, जो जीवन की कगार पर भी फलता-फूलता था। उनकी शारीरिक बनावट एक विरोधाभास थी: घावों से क्षत-विक्षत, पर उस इच्छाशक्ति से विशाल, जो उन्हें आगे बढ़ाती थी। यहाँ तक कि बाबर, उनका अंतिम शत्रु था। फिर भी उसने अपनी किताब ‘बाबरनामा’ में उनकी दृढ़ता पर विस्मय जताया, यह लिखते हुए कि सिवाय राणा सांगा के हिंदुस्तान में किसी राजा के पास इतनी कमजोर देह और इतनी अटल शक्ति नहीं थी।

राजा का हृदय

राणा सांगा का चरित्र उनकी देह की तरह ही प्रबल था। उन्होंने राजपूत संहिता को अक्षरस जीवन में उतरा था। उन्होंने आपने जीवन पर्यंत वीरता, सम्मान और धर्म को साकार किया और साथ ही उसमे एक मानवीयता को भी जोड़ दिया, जो उन्हें समकालीन शासको में सबसे अलग करती थी। वीरता उनकी पहचान थी: 1519 में गागरोन में महमूद खिलजी को हराने के बादबी ही उन्होंने सुल्तान को मृत्यु नहीं दी, बल्कि उसके साथ सम्मान से पेश आए और बंधकों के साथ उन्हें भी रिहा किया। दुश्मन को छोड़ना एक ऐसा कृत्य, जिसने उनके शत्रुओं को चकित किया और सम्मान का द्रष्टिकोण भी अर्जित किया। यह कमजोरी नहीं, सोची-समझी उदारता थी और एक संदेश था कि वे प्रतिशोध के लिए नहीं, सिद्धांत के लिए लड़ते थे। उनके लोग इसके लिए उनकी इज्जत करते थे, क्योंकि यहाँ एक ऐसा राजा था, जो भय से नहीं, उदाहरण से नेतृत्व करता था, उनके दुख साझा करता था और उनके बलिदानों का सम्मान भी करता था।

वे कम बोलते थे लेकिन उनकी एक आँख वाली नजर वहाँ भी बहुत कुछ कहती थी, जहाँ शब्द नाकाम हो जाते थे। दरबार में वे बोलने से अधिक सुनते थे, रावत कंधल या राव गंगा जैसे सरदारों की सलाह को शांत तीव्रता से तौलते थे। जब वे बोलते, उनके शब्दों में आज्ञा का भार होता था – दृढ़, समर्थ पर कभी क्रूर नहीं। “राजा का कर्तव्य अपने लोगों के प्रति होता है, अपने अभिमान के प्रति नहीं,” उन्होंने एक बार एक डगमगाते जागीरदार से कहा था और यही वह एक सूत्र भी था, जिसने उनके शासन को संचालित किया। उनका गुस्सा, उनके भड़कने पर प्रचंड होता था लेकिन धैर्य के गहरे स्रोत से नियंत्रित रहता था। राणा सांगा का यह गुण, जिसने उन्हें राजपूताना के झगड़ालू कबीलों को एक करने में सहायता प्रदान की। वे उन अपमानों को क्षमा कर देते थे जिनका बदला अन्य लेने को बेताब हो जाते थे, क्योंकि वे लोगों को बेड़ियों से नहीं लेकिन निष्ठा से बाँधते थे। विश्वास ने उन्हें युद्ध की तरह ही तराशा था। राणा सांगा खुद को धर्म का रक्षक मानते थे, एक धार्मिक हिंदू राजा जिसे अपने कार्यो से महाराणा हिन्दूपति भी कहा गया। एक राजा, जिसे अपनी भूमि की प्राचीन परंपराओं को मुस्लिम सुल्तानों के हमलों से बचाने का दायित्व मिला था। फिर भी, जब जरूरत पड़ी उन्होंने मेदिनी राय के अनुचरों जैसे मुस्लिम जागीरदारों से गठजोड़ भी की जो एक व्यावहारिकता की तरह था, जिसने उनके गठबंधन को विस्तृत किया। सांगा के लिए धर्म केवल कर्मकांड नहीं था, बल्कि यह लड़ने, सहने और मेवाड़ के सम्मान को सर्वोपरि रखने का नैतिक कर्तव्य भी था।

दरबार और जनाना

सांगा का दरबार उनके राज्य का एक छोटा सा प्रतिबिंब रूप था। जहां योद्धाओं, कवियों और रिश्तेदारों का मेला लगा रहेता था, जहाँ तलवारों की ठनक संगीत की स्वरलहरियों से मिलती थी। चित्तौड़ के कक्ष भाटों की आवाजों से गूँजते थे, जो उनकी विजयों को राजपूत गाथाओं में पिरोते थे। वे उनका स्वागत करते थे, उनके गीतों से उनका जख्मी चेहरा नरम पड़ता था, हालाँकि वे प्रशंसा पर शायद ही ठहरते थे। “मृतक मेरे नाम का गान करें,” उन्होंने एक बार हल्के व्यंग्य में कहा, उनके हास्य की दुर्लभ झलक। पृथ्वीराज कछवाहा और राव वीरम देव जैसे योद्धाओं को यहाँ ठिकाना मिला। समयांतर पर उनकी सलाह ने उनकी रणनीतियों को धार दी, उनकी निष्ठा ने असंतोष के खिलाफ एक ढाल बनाई। दरबार में चापलूसों के लिए जगह नहीं थी, क्योंकि राणा सच की माँग करते थे, भले ही वह कड़वा क्यों न हो और यही वह एक गुण था, जिसने उन्हें प्रशंसा से अधिक सम्मान दिलाया।

दरबार के पीछे था जनाना यानी की महिलाओं का कक्ष, जहाँ राणा सांगा का निजी जीवन उजागर होता था। रानी कर्णावती, उनकी प्रमुख पत्नी थी और उनकी उस दुनिया की नींव थीं। रानी कर्णावती बूंदी की हारा राजकुमारी थी और वे उनके साथ सुंदरता, बुद्धि और संकल्प शक्ति को लेकर आईं थी। गठजोड़ से शुरू हुआ उनका विवाह एक वक्त आते आते साझेदारी में बदल गया। रानी कर्णावती ने उन्हें राज्य के मामलों में परामर्श दिया, उनकी आवाज छाया में एक शांत शक्ति के सामान थी। उन्होंने तीन पुत्रों को जन्म दिया – जिसमे रतन सिंह द्वितीय, विक्रमादित्य, और उदय सिंह द्वितीय का समावेश होता है। अंतिम पुत्र उदयसिंह द्वितीय, जो राणा सांगा के शक्ति-शिखर पर 1522 में जन्मे थे। बचपन में कमजोर उदय सिंह बड़े होकर महाराणा प्रताप के पिता बने, जिन्हें अपने दादा की सामर्थ्य शक्ति और विजय अग्नि विरासत में मिली। रानी कर्णावती की शक्ति राणा सांगा की मृत्यु के बाद चमकी, जब उन्होंने संरक्षक के रूप में मेवाड़ में शासन किया। 1535 में अपने दुखद जौहर तक मेवाड़ को उसके काले दिनों से निकालना उनके योगदान का भाग रहा।

राणा सांगा की अन्य पत्नियाँ जिनमे राठौड़, चौहान और अन्य राजपूत क्षत्राणीयां उनके कूटनीतिक जाल के धागे के समान थीं, उनकी उपस्थिति उनके कबीलों के बीच सेतु स्थापित करती थी। वे उनके साथ उसी प्रेम और सन्मान से पेश आए, उनके बच्चों का पालन पोषण भी राजकुमारों की तरह ही हुआ और उनके रिश्तेदारों का दरबार में स्वागत किया। राणा सांगा के शासन में जनाना विभाग कोई सोने का पिंजरा नहीं था, उल्टा यह विभाग यह एक परिषद थी, जहाँ कर्णावती जैसी महिलाएँ एक राज्य की नियति को संवारती थीं। सांगा का अपने परिवार से गहरा लगाव था, हालाँकि निरंतर चलने वाले युद्ध और कुटनीतिक संघर्षो ने कोमलता के लिए कम वक्त छोड़ा था। उन्होंने अपने बेटों को संघर्षो के बिच भी युद्ध प्रशिक्षण दिया। बच्चो की हँसी उनकी युद्ध-थकी आत्मा के लिए दुर्लभ मरहम का काम करती थी। “जब मैं मिट्टी में मिल जाऊँगा, तब वे मेरा खून युद्ध क्षेत्रो में बहाएँगे,” उन्होंने एक बार कहा था। एक योद्धा के जीवन में एक पिता की आशा इससे अधिक क्या हो सकती है?

अडिग भावना

अक्सर हम किसी निर्भय और सामर्थ्यवान व्यक्ति को देखकर यही सोचते है की वह क्या है जो इसे प्रेरणा देता है? यही सवाल हम राणा सांगा के लिए कर सकते है की वह क्या है जो उन्हें प्रेरित करता था? लोभ? जवाब है, नहीं। क्योंकि उनकी विजयों ने ही मेवाड़ को समृद्ध बनाया था, उनके खजाने को नहीं। घमंड?  जवाब है, नहीं। उनके निशान सुंदरता के किसी दावे को ठुकराने को सक्षम थे। वास्तव में यह प्रेरक बल था, कर्तव्य। क्योंकि राणा सांगा ने उस हर राजपूत कुमार की तरह अपने पूर्वजो और महान सम्राटो का यशोगान सुना था। उनका बचपन उनके दादा राणा कुंभा और दिल्ली अधिपति सम्राट पृथ्वीराज चौहान की कहानिया सुनते हुए गुजरा था। इन्ही कहानियों से उनकी जवानी में एक स्वाभिमान का उफान आया था, एक विश्वास उनके अंदर उभरा था कि उनका जन्म तूफानों के खिलाफ राजपूताना की रक्षा के लिए हुआ था। वे खुद को ढाल मानते थे, उनका शरीर उनके लोगों की आजादी की कीमत था। हर घाव, हर क्षति ने उनके संकल्प को कमजोर नही किया उल्टा उन्हें अधिक मजबूत किया। यही प्रेरक था की जब उनका हाथ खतौली में कटा, वे लड़ते रहे; जब उनका पैर लाचार हुआ, वे और जोर से लड़े। उन्होंने अपने सैनिकों से कहा, “एक राजा खड़े-खड़े मरता है,” और अंत तक वे खुद भी इस सिद्धांत पर कायम रहे।

उनकी आत्मा उनके शरीर की बनावट पर एक विरोधाभास के समान थी। वे स्वभाव से युद्ध में उग्र पर वास्तव में कोमल, निर्णयों पर अटल किंतु जित के बाद भी क्षमाशील थे। वे युद्ध में लड़ने वाले शहीद योद्धाओं के लिए रोते थे (राजपूत और शत्रु दोनों के लिए) उनकी चिताएँ एक साझा सम्मान का प्रतिक थीं। वे कम ही हँसते थे, पर जब भी हँसते थे उनकी आवाज चित्तौड़ के पत्थरों को गर्म कर देती थी। बाबर की छाया के बावजूद उनके उद्देश्य में उनका यकीन कभी कम नहीं हुआ। 1527 में खानवा में घायल और विश्वासघात से जर्जर अवस्था में होते हुए भी, उन्होंने दिल्ली को वापस लेने या कोशिश में मरने की कसम खाई। उनकी यह कसम 1528 में उनकी मृत्यु साथ ही तूटी, पर अंत तक लड़ने की भावना और इच्छा शक्ति यह उनकी अडिग इरादों का साक्ष्य थी।

स्मृति में व्यक्ति

कुछ लोग आज राजपूत इतिहास को कम आंकते है या नकार देते है मानो कुछ था ही नहीं। लेकिन यह समज लेना आवश्यक हे की राणा सांगा कोई मिथक नहीं थे, वे हाड, मांस, घाव और नश्वर देह से बने एक इंसान थे जिन्होंने अपने सपने के लिए अपना खून जीवन के अंत समय तक बहाया। आँख, हाथ, पैर सहित उनकी शारीरिक क्षति ने उनकी महानता को घटाया नहीं लेकिन और अधिक बढ़ाया।वे एक सशक्त राजा के रुप में उभरे जिन्होंने खुद के हर एक श्वास को अपने लक्ष्य के लिए समर्पित कर दिया। उनके दरबारी उनका अत्यधिक सन्मान करते थे, उनकी पत्नियाँ उनका पोषण करती थीं, उनके बेटे भी आवश्यकता आने पर उनके नाम को आगे ले गए। राणा सांगा सिर्फ एक राजा नहीं वे मेवाड़ की आत्मा थे, एक राजपूत योद्धा जिनकी मानवता उनकी वीरता से मेल खाती थी। जब कवि उनके बारे में गाते थे, वे उन्हें “संग्राम” ही कहते थे (संग्राम यानी युद्ध का अवतार) पर आवश्यकता अनुसार “सांगा” भी, जो उनके बीच चलने वाला साथी थे। मेवाड़ के ताज के पीछे एक ऐसा इंसान था, जिसने परिवार से प्रेम किया, स्वाभिमान के लिए हर युद्ध लड़ा और जित की हर आस के साथ हर घांव सशक्त होकर सहा। राणा सांगा वह शेर थे, जिनकी दहाड़ आज भी समय के पार मेवाड़ के सुवर्ण इतिहास में आज भी गूँजती है।


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